इसके लिए कागज़ को भिंगोकर उसके लग्धे में सफ़ेद स्याही एवं, पेड़ से निकला जाने वाला गोंद मिलाया जाता है। पूरा मिश्रण भली-भॉति मिला लेने के बाद उसे सांचे में भरा जाता है और फिर मूर्तियां बनाई जाती है। मूर्ति सूखने के बाद उस पर प्राकृत्रिक रंग (फूड कलर ) का इस्तमाल कर उसे का़फी खुबसूरती से सजाया-संवारा जाता है। ये मूर्तियां पानी में आसानी घुल जाती हैं और इससे पर्यावरण का संतुलन भी बना रहता है।
इस तरह से नविन पद्धतिनुसार मूर्तियां बनाने के लिये संस्था को लाइसेंस प्राप्त होने के बावजूद भी संस्था ने इसका अधिकार स्वयं अपने पास ही न रखकर सर्वसामान्य लोगों के लिए ये तरीका खुला रखा और जनता को पर्यावरण रक्षा के लिए जागृत किया। संस्था के इस उपक्रम के प्रति पुरे जगभर से काफ़ी प्रतिसाद मिल रहा है।
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